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'बचपन मेरा लौटा दो ' BACHPAN MERA LAUTA DO

         बचपन मेरा लौटा दो रूक जाओ थम जाओ ए समय मेरी यही पुकार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । दोस्त छिना , स्कूल छिना  छिना तुमने वो कागज का नाव , कोई जाए , जाकर पुछे क्या है  इसके लौटाने के भाव । पैसे रहते हुए कुछ खरीद न पाया ऐसा ये बाजार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । क्यों मुझे इतना बड़ा बनाया कि माँ के गोद में नहीं समा पाता , क्या किसी ने ऐसा रास्ता नहीं बनाया जो मुझे बचपन में पहुँचा पाता । सिर्फ मैं नहीं मेरे बुढ़े दोस्त भी जूझ रहे  सभी लाचार हैं , जी लेने दो फिर से बचपन मेरा ये अधिकार है । स्वार्थ भरी इस दुनिया में  मैं बच्चा ही अच्छा था , एक तु ही समय था झुठा ,  और मेरा बचपन सच्चा था । तुझे छोड़ और किसी से शिकायत नहीं  मेरा ये संस्कार है । जी लेने दो फिर से बचपन मेरा ये अधिकार है । रूक जाओ थम जाओ ए समय मेरी यही पुकार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । कोई होता जो मेरे बचपन को  पिंजरे में डाल देता , ‘ तेरा ...

मेरा गाँव मेरे खेत My village and my field


परिचयः- दोस्तों! यह कविता एक सर्वसाधारण व्यक्ति की है जो पहले गाँव का निवासी था, जहाँ बहुत ही सीधी-साधी जिंदगी व्यतित कर रहा था। अचानक उसकी सरकारी नौकरी लग जाती है मगर वो गाँव की यादों को भूल नहीं पा रहा है और उसका मन करता है कि नौकरी छोड़ गाँव में जाकर पुनः बस जाए। मगर समय के पहिए में उलझे परिवारीक उथल-पुथल में सामंजस्य नहीं बना पाने के कारण सही निर्णय नहीं ले पाता है। इस कविता के माध्यम से उस व्यक्ति के मन में चल रहे भावनात्मक विचाधारा को प्रस्तुत किया गया है।

मेरा गाँव मेरे खेत
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कल रात को आवाज आई मेरे मन से,
वो गाँव, वो मिट्टी खो चुका हूँ अपने जीवन से

सहसा कुछ धुंधली तस्वीरें सामने तैरती है,

पुरानी किताबों के पिले पन्ने से

नयी बातें जाती हैं कुछ पुरानी याद आती हैं,

और तो कुछ हँस रही मुझ पर एक कोने से

बदला-बदला सा दृश्य है, अच्छा है लेकिन

कुछ तो ढ़ूंढ मैं भी रहा हूँ

वो अपनी ठेठ भाषा, खेत-खलिहान

जहाँ कभी मैं भी रहा हूँ

चारों तरफ हरियाली, शुद्ध हवा और जल

जिसे छोड़ मैं भारी मन से आया

अर्थ प्रधान समाज में पड़ा हूँ निर्बल

नहीं किसी ने मुझे जगाया

देखकर इन ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को

सोचता था अब शहर बड़े होने लगे

स्वार्थी जैसी संकुचित विचारधारा से घिरा मैं

मेरे अपने पर मेरे विश्वास छोटे होने लगे

दौड़ते-दौड़ते मेरा मन उन खेत के पगडंडियो पर

रूक जाता है और कहता है

पूर्वज का आर्शिवाद है ये जिसे तु

सम्पती मात्र भर समझता है

करो वश में इसे जो बहती चंचल विचारधारा है

रोको अपनी अश्रुधारा को जो बह रहे नयनन से

कल रात को आवाज आई मेरे मन से,
वो गाँव, वो मिट्टी खो चुका हूँ अपने जीवन से

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                      --------  रोशन कुमार सिंह

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