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'बचपन मेरा लौटा दो ' BACHPAN MERA LAUTA DO

         बचपन मेरा लौटा दो रूक जाओ थम जाओ ए समय मेरी यही पुकार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । दोस्त छिना , स्कूल छिना  छिना तुमने वो कागज का नाव , कोई जाए , जाकर पुछे क्या है  इसके लौटाने के भाव । पैसे रहते हुए कुछ खरीद न पाया ऐसा ये बाजार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । क्यों मुझे इतना बड़ा बनाया कि माँ के गोद में नहीं समा पाता , क्या किसी ने ऐसा रास्ता नहीं बनाया जो मुझे बचपन में पहुँचा पाता । सिर्फ मैं नहीं मेरे बुढ़े दोस्त भी जूझ रहे  सभी लाचार हैं , जी लेने दो फिर से बचपन मेरा ये अधिकार है । स्वार्थ भरी इस दुनिया में  मैं बच्चा ही अच्छा था , एक तु ही समय था झुठा ,  और मेरा बचपन सच्चा था । तुझे छोड़ और किसी से शिकायत नहीं  मेरा ये संस्कार है । जी लेने दो फिर से बचपन मेरा ये अधिकार है । रूक जाओ थम जाओ ए समय मेरी यही पुकार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । कोई होता जो मेरे बचपन को  पिंजरे में डाल देता , ‘ तेरा ...

'बंजर धरती' BANJAR DHARTI



नोट:- जैसा कि इस कविता का शीर्षक है 'बंजर धरती', हमने इसके माध्यम से एक गरीब किसान की स्थिती को उजागर करना चाहा है और हमने बताने की कोशिश की है कि कैसे एक गरीब किसान तन, मन, धन के साथ धान के लिए बिजड़े लगाता है और वर्षा पर आश्रित हो जाता है लेकिन जब वर्षा होने की उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आती है तो कैसे उस किसान के खेत के साथ-साथ मन पर भी संभावनाओं का आकाल पड़ जाता है।


बंजर धरती

बंजर धरती बंजर खेत की है पहचान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

प्रकृति ने है तेरी बड़ी हँसी उड़ाई
है दो दरारों के बीच ये कैसी खाई
दरारें प्रेमी-प्रेमिका अभिनय हैं करते
आपस में मिलने के लिए हैं तरसते
एक बुंद के लिए तड़पती है ये हिंदुस्तान

बंजर धरती बंजर खेत की है पहचान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

रो-रोकर हमसे पुछते हैं ये बिजड़े
बिन पानी इस बार हम हैं क्या पिछड़े
आँखों में खो गया वो बारिश का पानी
आज तो बादर भी हो गया है अभिमानी
किसान के मुख पर है रोती हुई मुस्कान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

बंजर धरती बंजर खेत की है पहचान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

जमीन के अस्तित्व के चिथड़े उड़ गए आज
ईश्वर को भी ये देखकर आई नहीं लाज
आँख में बादर मुख में पानी है नाम
बारिश एक नहीं सबके बीच सरेआम है बदनाम
प्रकृति की चोट से आज भी है ये अनजान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

बंजर धरती बंजर खेत की है पहचान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

बारिश कल होगी आज होगी इसकी है आशा
दिन गया रात आई फिर भी सोई नहीं है आशा
कौन इस निराशा को आशा में बदले
निराशा बुझती है या बुझती है आशा पहले
चेहरे पर दरिद्रता क्या वास्तविकता है ये निशान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

बंजर धरती बंजर खेत की है पहचान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

पानी-पानी चारों तरफ हाहाकर है पानी
जिसको लिख रहा हूँ मैं आज अपनी जुबानी
इसे लिखना मेरी बहुत बड़ी है अज्ञानता
शायद नहीं है अंत लिखी गई है जो कविता
हृदय की खोज है कहाँ छुपी है वरदान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

बंजर धरती बंजर खेत की है पहचान
कल भी नंगा आज भी नंगा है किसान

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            ---------- रोशन कुमार सिंह


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