ना ‘लायक’ बेटे ?
मान्यवर ! मैं बहुत बड़ा लेखक नहीं हूँ और ना ही हिन्दी का बहुत बड़ा ज्ञाता हूँ बस अपनी भावनात्मक विचारों को इस लेख के माध्यम से आपके मानसिक पटल पर रखना चाहता हूँ।
अभी कुछ दिन पहले की बात है। रोज की तरह सुबह हुई, मैं तरोताजा होने के बाद बालकोनी में अखबार पढ़ने बैठा साथ में चाय की चुस्कियाँ भी ले रहा था। खबर पढ़ते-पढ़ते मेरी नजर अखबार के चौथे पृष्ठ के निचे वाले पंक्ति पर रूक गई जहाँ मोटे अक्षरों में लिखा था ‘‘नौकर ने की बुजुर्ग दम्पती की हत्या।’’ आए दिन इस तरह के खबर से अखबार भरा रहता है तो मैंने भी उतना ध्यान नहीं दिया और अगले पृष्ठ की ओर बढ़ गया लेकिन अचानक मेरे मन में एक जिज्ञासा हुई कि बुजुर्ग दंपती की आखिरकार नौकर ने हत्या क्यों की होगी? मैंने पीछे की ओर पृष्ठ पलटा और उस खबर को विस्तार से पढ़ने लगा जिसका सारांश कुछ इस तरह था।
बुजुर्ग दंपती के एक पुत्री और दो पुत्र थे जिसमें पुत्री सबसे बड़ी थी, शादी करके अपने ससुराल चली गई थी। दो पुत्र जो उम्र में बहन से छोटे थे इनका लालन-पालन दंपती ने बड़े ही शान से किया था और इनकी परवरिश में कोई कमी नहीं रखी और उँचे स्कूल-कालेजों में पढ़ाया-लिखाया। शिक्षा प्राप्त करने के बाद बड़े लड़के ने डाक्टरी की और अच्छे पैकेज के साथ विदेश चला गया वहीं छोटे लड़के ने भी इंजीनियरिंग करके विदेश में नौकरी प्राप्त कर ली । दुर्भाग्यवश कुछ दिन बाद बुजुर्ग दंपती के लड़की की सड़क हादसे में मैात हो गई। कुछ दिन बाद सब धीरे-धीरे सामान्य हो गया। फिर उन्होंने दोनों बेटों की शादी की, बुढे़ माँ-बाप पोते वाले भी हो गए। बीच-बीच में दोनों लड़के स्वदेश आते रहते थे तब बुढ़े माँ-बाप की तबियत भी ठीक रहती थी। कुल मिलाकर दिन बहुत दिन अच्छे से कट रहे थे। एक दिन बड़े बेटे ने कहा ’’आपलोग अब काफी बुजुर्ग हो गए हैं आपके स्वास्थ्य की देखभाल अब कौन करेगा?.........क्यों नहीं पापा आप मेरे साथ चलकर विदेश में रहते हो।’’ माँ को भी छोटे बच्चे ने अपने साथ विदेश आकर रहने को कहा लेकिन उम्र के साठ बसंत देख चुके बुढ़े दंपती को वो शहर को छोड़कर जाने का मन नहीं हुआ और दुसरा बड़ा कारण वो वृद्धावस्था में एक-दुसरे का खोना नहीं चाहते थे,बची हुई जिंदगी एक साथ ही गुजारना चाहते थे। अंततः उन्होंने बच्चों का ‘ना’ कहकर मना कर दिया तो बेटों ने भी माँ-बाप के देखभाल के लिए एक नौकर रखा और विदेश चले गए। जैसे-जैसे समय गुजरा नौकर के मन में बेईमानी घर कर गया और एक दिन योजनाबद्ध तरीके से दोनों बुजुर्ग दंपती को दुध में जहर देकर रात्रि में मँहगे सामान, ज्वेलरी और नकदी लेकर फरार हो गया।
इतना पढ़ने के बाद मेरी नजर अखबार से हटकर बालकोनी से बाहर चली गई और मैं बिल्कुल शांत हो गया जैसे अखबार पढ़ने की अब इच्छा ही न हो । अचानक मेरे मन में बहुत सारे विचार और सवाल तैरने लगे जैसेः- खुनी कौन?, वो नौकर या उसके बेटे या उस वृद्ध दंपती की इच्छाएँ, उनकी आकांक्षाएँ या बच्चे की ऊँच शिक्षा के लिए उस माँ-बाप की ममता या उन बेटों की डिग्रियाँ या नौकरी....................सवाल बस एक खुनी कौन????
डर लगता है आस-पास मेरे भी बहुत सारे बुजुर्ग माँ-बाप अकेले रहते हैं जिनके बच्चे बाहर रहकर पढ़ाई कर रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं......सोचता हूँ इनके बुढ़ापे के क्या होगा? दुसरे का क्या कहूँ मेरे भी तो बच्चे हैं क्या मेरा भी बुढ़ापा ऐसा ही होगा? कभी-कभी गलत ही सही लेकिन लगता है कि हम अपने बच्चों की कैसी परवरिश दे रहे है? क्या मैं सही सोच रहा हूँ या अपने डर के चौखट पर उनके उज्जवल भविष्य की बली देना चाहता हूँ, कुछ भी नहीं समझ में आता है।
क्या आज के समय में बाहर जाकर ही धंधा-पानी या व्यवसाय करना एकमात्र विकल्प है अच्छे भविष्य का? आखिर हम उन्हें ऐसा क्यों नहीं बनाते कि भविष्य में वो अपना कुछ स्र्टाटअप या व्यवसाय शुरू करें और अपने माँ-बाप के साथ रहकर बुढ़ापे का सहारा बनें।
संयुक्त परिवार तो गाँव में ही पहले देखने को मिलता था । सभी के चेहरे पर खुशी का चमक रहती थी चाहे कोई पर्व का दिन हो या कोई आम दिन। लेकिन अब वहाँ के बच्चे भी परिवार को छोड़कर रोजी-रोटी के लिए बाहर निकल जा रहे हैं और अगर परिवार में एकाध नालायक बच्चे निकल जाते हैं तो वो ही बुढ़ापे का सहारा बन जाते हैं। (यहाँ मेरा नालायक से तात्पर्य बेरोजगारी, निकम्मेपन से है न कि उदंडता, भ्रष्ट आचरण से) यह देखने के बाद लगता है कि एक नालायक बेटे की भी समय पर कितनी
आवश्यकता है जो बुढ़ापे का सहारा बने क्योंकि बच्चे को लायक बनाने के लिए उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करते-करते जब वे थक कर बैठ जाते है उस समय उनको खड़ा करने के लिए बेटों के पास समय नहीं रहता कि उन्हें खड़ा कर सके, क्योंकि वा अब लायक बन गए हैं और बहुत व्यस्त भी। माँ ने एकाध नालायक बेटा पैदा किया होता तो शायद साथ में होता और खड़ा करने में मदद करता ।
संयुक्त परिवार की परिभाषा जैसे कहीं गुम सी हो गई है। बड़े-बुजुर्गो का सम्मान कुछ समय के लिए जैसे सिमित हो गया है या यूँ कहें कि उनके सम्मान की एक समयवधि
तय हो गई है जो कुछ निश्चित समय के बाद बड़े-बुजुर्गों का आदर-सम्मान रूक जाता है कारण कि हम एक समय के बाद उनसे ज्यादा अपने आप को होशियार, बुद्धिमान समझने लगते हैं । उनकी कही गई बातों को हम नजरअंदाज करने लगते हैं और उनकी सलाह लेने के बजाय उन्हीं को उपदेश देने लग जाते हैं। परिवार में रिश्तों के साथ-साथ विचारों को भी जंजीरों में जकड़ दिया जाता है और फिर जन्म होता है स्वार्थ जैसी संकुचित
विचारधारा का, जहाँ सिर्फ हमसभी मैं, हम और मेरा जैसे शब्दों पर रूक जाते हैं। हम अपने सपने पुरा करने के लिए अपने बुढ़े माँ-बाप के सपने जो हम पर आश्रित हैं जिसे वो कभी बयाँ नहीं करेंगे, दफना दिये जाते हैं। जबकि हमारे सपने का साकार करने में उनका भरपूर योगदान है तो फिर उनके सपनों का क्या? क्या जीवन में एक सफल उद्यमी या अच्छी पैकेज वाली नौकरी पा लेना ही हमारा उद्येश्य रह गया है? क्या एक सफल व्यक्ति की एकमात्र पहचान यही रह गई है जहाँ पर हमारा परिवार और समाज कहीं गुम हो जाता है? या भाग-दौड़ भरी जिंदगी में एक सफल आदमी और अच्छे इंसान के बीच का अंतर पता नहीं चल पाता है? क्या माँ-बाप ने हमें यही संस्कार दिए हैं या फिर हमने संस्कारों का भी वर्गीकरण कर डाला है? सवाल बस आखिर में यही है कि वाकई में एक बुढ़े माँ-बाप को उनके वृद्धावस्था में एक नालायक बेटे की आवश्यकता है? मैंने कहीं एक वृद्धाआश्रम के गेट पर लिखा हुआ अप्रतिम सुविचार पढ़ा था-
‘‘नीचे गिरे सूखे पतों पर अदब से चलना जरा,
कभी कड़ी धूप में तुमने इनसे ही पनाह माँगी थी ।’’
मित्रों ! ये मेरा व्यक्तिगत भावनात्मक विचार है। अंत में अपनों विचारों को मैं अपनी एक कविता के साथ विराम देना चाहता हूँ।
भाग दौड़ भरी जिंदगी में
तु कितना मदमस्त हो गया,
माँ-बाप के इच्छाओं से भी
ज्यादा तु व्यस्त हो गया।
देखते-देखते आज तु
कितना बड़ा हो गया,
मेरे से भी आगे
आज तु खड़ा हो गया।
तन्हाई के अंधेरे में बस
थोड़ा सा आँख नम हो गया,
स्वार्थी भरे विचारों से बस
थोडा सा जज्बाती हो गया।
जो था कल मैं उनके लिए हिरो
आज मेरे लिए वो नायक बन गए,
कल तक थे जो मेरे बेटे नालायक
आज लायक बन गए ।
घुटने और कंधे मेरे कमजोर हो गए
मैं कितना लाचार हो गया,
चाहकर भी तुझे रोक न पाया
बुढ़ापे में कितना मजबूर कितना बेबस हो गया।
हाँ.........कितना बेबस हो गया।
हाँ.........कितना बेबस हो गया।
----धन्यवाद----
रोशन कुमार सिंह
कार्मिक
विभाग, सिजुआ
क्षेत्रीय कार्यालय
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