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Showing posts from September, 2018

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'बचपन मेरा लौटा दो ' BACHPAN MERA LAUTA DO

         बचपन मेरा लौटा दो रूक जाओ थम जाओ ए समय मेरी यही पुकार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । दोस्त छिना , स्कूल छिना  छिना तुमने वो कागज का नाव , कोई जाए , जाकर पुछे क्या है  इसके लौटाने के भाव । पैसे रहते हुए कुछ खरीद न पाया ऐसा ये बाजार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । क्यों मुझे इतना बड़ा बनाया कि माँ के गोद में नहीं समा पाता , क्या किसी ने ऐसा रास्ता नहीं बनाया जो मुझे बचपन में पहुँचा पाता । सिर्फ मैं नहीं मेरे बुढ़े दोस्त भी जूझ रहे  सभी लाचार हैं , जी लेने दो फिर से बचपन मेरा ये अधिकार है । स्वार्थ भरी इस दुनिया में  मैं बच्चा ही अच्छा था , एक तु ही समय था झुठा ,  और मेरा बचपन सच्चा था । तुझे छोड़ और किसी से शिकायत नहीं  मेरा ये संस्कार है । जी लेने दो फिर से बचपन मेरा ये अधिकार है । रूक जाओ थम जाओ ए समय मेरी यही पुकार है , जी लेने दो फिर से बचपन को मेरी ये अधिकार है । कोई होता जो मेरे बचपन को  पिंजरे में डाल देता , ‘ तेरा ...

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‘डर है आज मैं’ DARR HAI AAJ MAIN

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‘डर है आज मैं’ परिचयः- दोस्तों! यह एक रोमांटिक विरह कविता है जिसमें यह दर्शाया गया है कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के विरह में अपने जज्बातों को कैसे व्यक्त करता है। कितना अकेला हो गया हूँ आज मैं, इतना क्यों बदल गया हूँ आज मैं। खुद को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ कहीं तो कुछ मैं जरूर भूल रहा हूँ डर है उन्हें न भूल जाऊँ आज मैं इतना क्यों बदल गया हूँ आज मैं ये इंतजार का फासला कैसे कम हो लगता है मेरी आँखे जैसे नम हो डर है मायूस न हो जाऊँ आज मैं इतना क्यों बदल गया हूँ आज मैं अब कुछ-कुछ धँुधला याद आता है तुम्हारे सिवा और किसी से नहीं नाता है डर है पागल न हो जाऊँ आज मैं इतना क्यों बदल गया हूँ आज मैं आँखों में आँसु ठहर नहीं रहे है, क्या आप इसे महसूस कर रहे हैं डर है मजाक न बन जाऊँ आज मैं इतना क्यों बदल गया हूँ आज मैं जिंदगी से जाने वाले याद आया न करो, जाते-जाते हँस कर मुझे सताया न करो डर है रो न जाऊँ आज मैं इतना क्यों बदल गया हूँ आज मैं कितना अकेला हो गया हूँ आज मैं इतना क्यों बदल...

‘एक अपनापन सा हो गया’ EK APNAPAN SA HO GAYA

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‘एक अपनापन सा हो गया’ परिचयः- दोस्तों! यह एक रोमांटिक कविता है जिसमें यह दर्शाया गया है कि एक पुरूष को महिला के साथ मित्रता हो गई है मगर वो आदमी को इतना अपनापन सा हो गया है कि उसे लगता है कि कहीं वा महिला से प्रेम न कर बैठे। महिला को भी पुरूष से काफी लगाव हो गया है परन्तु वो भी कुछ कह नहीं पा रही है, इसी ताने-बाने को इस कविता में चित्रित किया है। वो कहते हैं प्यार नहीं दोस्ती सा हो गया है, लगता है जैसे एक अपनापन सा हो गया है। कैसे करूँ यकीन ये प्यार वो दोस्ती कोई तो ये बताए ये हो गया है जटिल प्यार नहीं है सस्ती, शायद कर रहें हैं वो मस्ती किसी को बताने की जरूरत नहीं मुझे गया है मिल वो कहते हैं अंदर से एक नयापन सा हो गया है लगता है जैसे एक अपनापन सा हो गया है नहीं चाहकर भी जाना बन गया है मजबूरी, आखिर कहीं तो छुपा है वो जो कम करता है दूरी नहीं बस आज भर आज जाना है बहुत जरूरी महसूस होता है जैसे फितरत में हो तेरी वो कहते हैं नहीं रे एक आदत सा हो गया है लगता है जैसे एक अपनापन सा हो गया है पता नहीं किस ओर चले जा रह...

‘बचपन की चाह’ BACHPAN KI CHAH

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‘बचपन की चाह’ परिचयः- दोस्तों! यह कविता एक बुजुर्ग से संबंधित है जो अपनी उम्र के लगभग पचास वर्ष पार कर चुका है और वो फिर से अपने बचपन की ओर लौट जाना चाहता है, वहीं जाकर बस जाना चाहता है। इस कविता के माध्यम से वो अपने बचपन के गुजरे हुए दिनों को याद करता है। कितना बदल गया है इन पचास सालों में, खो जाने दो मुझे बचपन के ख्यालों में। आज मेरे पास जिम्मेदारियों की भीड़ है, लड़कपन की ओर निकला दिमाग से तीर है नन्हें हाथों से पेड़ो पे चढ़के फल तोड़ना, और यही हाथों से नदी के किनारे तैरना काले कुछ बाल बच गए हैं सफेद बालों में, खो जाने दो मुझे बचपन के ख्यालों में। काँच की गोलियों को ले जेब में टनटनाना, चार आने के सिक्कों को ले हाथों में खनखनाना गिल्ली-डंडा से  काँच की खिड़कियों का टुटना, इस मासुमियत में शैतानी कामों का करना जब पड़ते थे पिता के दो हाथ गालों में, खो जाने दो मुझे बचपन के ख्यालों में। सुबह-सुबह बच्चों के झुंड में स्कूल जाना, और मास्टर जी की छड़ी छुपा देना आँखे लालकर हमारे कानों का ऐंठना, मिट्टी भरी जमी...

‘मैं भला कैसे चुप रहता’ MAI BHALA KAISE CHUP RAHTA

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‘मैं भला कैसे चुप रहता’ परिचयः- यक कविता हिन्दी भाषा के ऊपर आधारित है जिसमें हमने हिन्दी के खो रहे अस्तित्व को बचाने के लिए अपने अंदर हिन्दी भक्ति जगाने का प्रयास किया है, ताकि यह पढ़ने के बाद सभी को लगे कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा ही नहीं मातृभाषा भी है और हमें इसे बचाये रखने तथा प्रचार-प्रसार करने एवं अपनी दिनचर्या में शामिल करने के लिए बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना होगा । बातें किसी और की होती तो छोड़ भी देता चर्चा जब अपनी हिन्दी की है तो मैं भला कैसे चुप रहता इस अंग्रेजी और  हिंन्दी के लड़ाई में मेरी हिन्दी को जब कोई दबा रहा था तो मैं भला कैसे चुप रहता जब शहर के बाजारों में देहात के गलियारों में अंगेजी मुझपर हँस रही थी तो मैं भला कैसे चुप रहता हमारी तो अपनी है हिन्दी हृदय से है हमने अपनाया फिर कोई मजाक उड़ाता तो मैं भला कैसे चुप रहता जब हिन्दी ने आह्वान किया हे भारतवासी मेरी आवाज बनो क्यों खड़े हो, गुंगे बनकर तो मैं भला कैसे चुप रहता अंग्रेजियत  के जंजीरों से हमारी हिन्दी को बांधने की कोई चेष्टा करता तो मैं भला कै...